Rafi Sahab Ne Kiya Shabdon Par Jaadu (Part 2)
पिछली पोस्ट में हम ने बात की रफ़ी साहब ने किए शब्दों पर जादू की जिसमें उन्होंने कुछ विशेष शब्द इस तरह से गाए कि वह कानों को एकदम मुलायम सुनाई दें। आज हम बात करेंगे रफ़ी साहब की जादूगरी की जिसमें उन्होने केवल एक ही शब्द ऊँचे स्वर या सख़्त अंदाज़ में गाया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, रफ़ी साहब ने ऐसा बहुत ही कम गानों में किया है। वे ऐसा तभी करते थे जब उन्हें श्रोताओं का ध्यान किसी ख़ास शब्द पर खींचना होता था। और जब वह ऐसा करते थे तो यह हो ही नहीं सकता कि आपका ध्यान न जाए।
लेकिन इससे पहले कि हम रफ़ी साहब की इस नायाब अदा की ओर बढ़ें, एक बात समझ लेना ज़रुरी है। आमतौर से यह बात कईं लोग जानते हैं कि रफ़ी साहब कठिन से कठिन पंक्तियाँ ऊँचे स्वरों में बिल्कुल साफ गा लेते थे। कभी उनकी आवाज़ फटती नहीं थी, या फीकी नहीं पड़ती थी। इसकी कईं मिसालें हैं। जैसे कि ‘बैजू बावरा’ फिल्म का ‘ओ दुनिया के रखवाले’ अविस्मरणीय गीत । ज़रा सुन कर देखिए।
या फिर ‘ब्रह्मचारी’ फिल्म का ‘दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’ गीत जिस के लिए उन्हें उस वर्ष का फिल्मफेअर पुरस्कार भी मिला था। जी हाँ, आप कितनी भी बार सुन लें, रोँगटे खड़े हो ही जाते हैं।
लेकिन मैं उनकी इस जादूगरी की बात नहीं कर रहा हूँ जिसमें उन्होने पूरी पंक्ति या गीत का एक बड़ा हिस्सा ऊँचे स्वर में गाया है। मैं बात कर रहा हूँ उन की उस अदा, उस जादूगरी की जिसमें उन्होने पूरी पंक्ति में महज़ एक लफ्ज़ ऊँचे स्वर या सख़्त अंदाज़ में गाया है। और वह भी इस तरह की श्रोताओं का ध्यान तो जाए पर खटके नहीं। इसकी एक बेहतरीन मिसाल है ‘हंसते ज़ख़्म’ फिल्म की वह मक़बूल कव्वाली ‘ये माना मेरी जाँ मोहब्बत सज़ा है’। इस के बीच में एक टुकड़ा है ‘जो मैख़ाने जा कर मैं साग़र उठाऊँ तो फिर यह नशीली नज़र किसलिए है’। इसमें जिस तरह से रफ़ी साहब ने सिर्फ ‘नज़र’ ऊँचे स्वर में गाया है वह उन पंक्तियों को और भी असरदार बना देता है। आप सुन लीजिए।
आया न मज़ा? रफ़ी साहब ऐसी जादूगरी गाने में एक ही बार दिखाते थे। इसलिए वह और भी ज़्यादा छू जाती है। जब उन्होने ये पंक्तियाँ दूसरी बार गाईं तो ‘नज़र’ को सामान्य तरीके से गाया है। मेरा ऐसा मानना है कि यह उनकी सादगी की और एक मिसाल है – उन्हें लोगों के दिल को छूना होता था अपनी कलाकारी नहीं दिखानी होती थी। और एक बात पर ध्यान दीजिए कि यह शब्द गाने का केंद्र भी नहीं है (जैसे कि ‘रखवाले’ शब्द ‘ओ दुनिया के रखवाले’ गीत में है)। यह महज़ उस पंक्ति को और भी असरदार बनाने के लिए की गई जादूगरी है।
इसी सिलसिले को जारी रखते हुए हम अगले उदाहरण की ओर बढ़ते हैं। ‘अमर अकबर एन्थोनी’ फिल्म की ‘पर्दा है पर्दा’ मेरी पसंदीदा कव्वाली है। इसमें एक टुकड़ा है ‘न डर ज़ालिम ज़माने से, अदा से या बहाने से’। इसमें रफ़ी साहब ने सिर्फ ‘डर’ सख़्त अंदाज़ में गाया है। और वह भी एक मज़ाकिया लहजे में। ज़रा सुन कर देखिए।
है न? ग़ौरतलब बात है रफ़ी साहब ने ‘अदा से या बहाने से’ किस मुलायमत पर ख़त्म की है। यानी पहली पंक्ति ‘न डर ज़ालिम ज़माने से’ सख़्त अंदाज़ में और दूसरी पंक्ति ‘अदा से या बहाने से’ एकदम मुलायम और रूमानी। रफ़ी साहब, महज़ दो लाइन में इतनी विविधता! सुनने वालों का दिल कैसे नहीं जीतेंगे आप? चलिए ऐसी ही जादूगरी की और एक मिसाल देखते हैं। ‘हम किसी से कम नहीं’ फिल्म की वह सुप्रसिद्ध कव्वाली ‘हैं अगर दुश्मन दुश्मन’ लेते हैं। इसमें एक टुकड़ा है जो रफ़ी साहब ने गाया नहीं है बल्कि बोला है – ‘बैठे हैं तेरे दर पे तो कुछ कर के उठेंगे, या तुझ को ही ले जाएंगे या मर के उठेंगे’। रफ़ी साहब ने जिस तरह से सिर्फ ‘मर’ शब्द थोड़ी ज़ोर से कहा है उस से और भी चार चाँद लग जाते हैं।
अगली पोस्ट में हम बात करेंगे रफ़ी साहब की शब्दों पर जादूगरी की जिसमें उन्होंने कुछ पंक्तियों सिर्फ बोली हैं।
जल्द मिलेंगे,
– नितिन